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गेंद और अन्य कहानियाँ

चित्रा मुदगल

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5063
आईएसबीएन :9780143067870

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चित्रा मुद्गल का यह कहानी संग्रह बच्चों के मन की कोरी स्लेटों पर बनती-बिगड़ती इबारतों का ऐसा दस्तावेज़ है

Gaind Aur Anya Kahaniyan - A Hindi Book - by Chitra Mudgal

चित्रा मुद्गल का यह कहानी संग्रह बच्चों के मन की कोरी स्लेटों पर बनती-बिगड़ती इबारतों का ऐसा दस्तावेज़ है, जिसे पढ़कर आप उन्हें उनकी तरह महसूस कर पाएंगे—उनकी आवश्यकताओं, समस्याओं, संभावनाओं और सीमाओं को जान पाएंगे। बच्चे हैं इन कहानियों में, बचपन छोड़ बड़े होते किशोर हैं, किशोरपन छोड़ आगे बढ़ते युवा हैं और युवावस्था से प्रौढ़ावस्था की दहलीज़ लांघ वृद्ध होते मनुष्य हैं। मगर हैं सब बच्चे ! कहीं न कहीं निस्पृह...अपने भीतर अबोधपन को बचाए-संजोए।

इन कहानियों में चित्रा मुद्गल ने जिस सूक्ष्मता से बच्चों के मन के भेद चित्रित किए हैं, उतने ही विस्तार में उनके मन पर पड़ने वाले पारिवारिक और सामाजिक भेदभाव के असर को भी उकेरा है। पाठक इन कहानियों को पढ़कर ही जान सकते हैं कि बच्चों को केंद्र में रखकर बड़ों के लिए लिखी गईं इन कहानियों का उद्देश्य और प्रभाव कितना गंभीर और व्यापक है।

आवरण फ़ोटो : मुग्धा साधवानी

आवरण डिज़ाइन : पूजा आहूजा

अनुक्रम


  • गेंद
  • बेईमान
  • शिनाख़्त हो गई है
  • एक काली एक सफ़ेद
  • मोरचे पर
  • दरमियान
  • पाली का आदमी
  • त्रिशंकु
  • मामला आगे बढ़ेगा अभी
  • डोमिन काकी
  • गली
  • रक्षक-भक्षक
  • दूध
  • दशरथ का बनवास
  • राक्षस

  • 1.
    गेंद


    ‘‘अंकल...ओ अंकल...! प्लीज़ सुनए न अंकल...’’
    संकरी सड़क से लगभग सटे बंगले की फ़ेसिंग के उस ओर से किसी बच्चे ने उन्हें पुकारा।

    सचदेवा जी ठिठके, आवाज़ कहां से आई, भांपने लगे। कुछ समझ नहीं पाए। कानों और गंजे सिर को ढके कसकर लपेटे हुए मफ़लर को उन्हेंने तनिक ढीला किया। मधुमेह का सीधा आक्रमण उनकी श्रवण शक्ति पर हुआ है। अक्सर मन चोट खा जाता है जब उनके न सुनने पर सामने वाला व्यक्ति अपनी खीझ को अपने संयत स्वर के बावजूद दबा नहीं पाता। सात-आठ महीने से ऊपर हो रहे होंगे। विनय को अपनी परेशानी लिख भेजी थी उन्होंने। जवाब में उसने फ़ोन खड़का दिया। श्रवण यंत्र के लिए वह उनके नाम रुपए भेज रहा है। आश्रमवालों की सहायता से अपना इलाज करवा लें। बड़े दिनों तक वे अपने नाम आने वाले रुपयों का इंतज़ार करते रहे। ग़ुस्से में आकर उन्होंने उसे एक और ख़त लिखा। जवाब में उसका एक फ़ोन आया। एक पेचीदे काम में उलझा हुआ था। इसलिए उन्हें रुपये नहीं भेज पाया। अगले महीने हैरो से एक भारतीय मित्र आ रहे हैं। घर उनका लाजपत नगर में है। फ़ोन नंबर लिख लें उनके घर का। उनके हाथों पौंड्स भेज रहा हूं। रुपए या तो वे स्वयं आश्रम आकर पहुंचा जाएंगे या किसी के हाथों भेज देंगे। नाम है उनका डॉक्टर मनीष कुशवाहा। महीना शुरू होते ही उन्होंने उनके घर फ़ोन करना शुरू कर दिया। तीसरी दफ़े पता लगा कि वे सोलह तारीख़ की रात आ रहे हैं। उनके फ़ोन करने से पहले ही डॉक्टर मनीष कुशवाहा का फ़ोन आ गया। रामेश्वर ने सूचना दी तो वे उमग कर फ़ोन सुनने पहुंचे। मनीष कुशवाहा ने बड़ी आत्मीयता से उनका हालचाल पूछा। जानना चाहा, क्या-क्या तकलीफ़ें हैं उन्हें। क्या अकेले रह रहे हैं वहां ? विनय के पास लंदन क्यों नहीं चले जाते ? उसकी बीवी...यानी उनकी बहू तो स्वयं डॉक्टर है...! रुपयों की कोई बात ही न शुरू हुई। झिझकते हुए उन्होंने ख़ुद ही पूछ लिया, ‘‘बेटा, विनय ने तुम्हारे हाथों इलाज के लिए कुछ रुपए भेजने को कहा था।’’

    मनीष को सहसा स्मरण हो आया—‘‘कहा तो था विनय ने, आश्रम का फ़ोन नंबर भी लिखा था, बाबूजी के लिए कुछ रुपए भिजवाने हैं...मगर मेरे निकलने तक...दरअसल, मुझे भी अतिव्यस्तता में समय नहीं मिला कि मैं उसे याद दिला देता...’’

    विनय को चिट्ठी लिखने बैठे तो कांपने वाले हाथ ग़ुस्से से कुछ अधिक ही थर्राने लगे। अक्षर पढ़ने लायक़ हो पाएं तभी न अपनी बात कह पाएंगे ! तय किया, फ़ोन पर खरी खोटी सुनाकर ही चैन लेंगे। फ़ोन पर मिली मारग्रेट बोली कि वह उनकी बात समझ नहीं पा रही। विनय घर पर नहीं है। मेनचेस्टर गया हुआ है। मारग्रेट के सर्वथा असंबंधित भाव ने उन्हें क्षुब्ध कर दिया। छलनी हो उठे। बहू के बात-बर्ताव का कोई तरीक़ा है यह ? फ़ोन लगभग पटक दिया उन्होंने। कुछ और हो नहीं सकता था। क्रोध में वे सिर्फ़ हिन्दी बोल पाते हैं या पंजाबी। मारग्रेट उनकी अंग्रेज़ी नहीं समझती तो हिंदी, पंजाबी कैसे समझेगी ? पोती सुवीना से बातें न कर पाने का मलाल हफ़्तों कोंचता रहा।

    नवंबर के किनारे लगते दिन हैं।
    ठंड की अवाती सभी को सोहती है। उन्हें बिल्कुल नहीं। छलांग भर बेलज्ज अंधेरे की बांह में डूब लेता है। आश्रम से सैर को निकले नहीं कि पलटने की खदबद मचने लगी।

    मफ़लर कसकर लपेट आगे बढ़े ताकि ‘मदर डेयरी’ तक पहुंचने का नियम पूरा हो ले। नियम पूरा न होने से उद्विग्नता होती है। किसी ने नहीं पुकारा। कौन पुकारेगा ? भ्रम हुआ है। भ्रम ख़ूब भरमाने लगे हैं इधर। अपनी सुध में दवाई की गोलियां रखते हैं पलंग से सटी तिपाही पर, मिलती है धरी तकिये पर।

    पहले वे चार-पांच जने इकट्ठे हो शाम को टहलने निकलते। एक-एक कर वे सारे बिस्तर से लग गए। बीसेक रोज़ पहले तक उनका रूम पार्टनर कपूर साथ आया करता था। अचानक उसके दोनों पांव में फ़ीलपांव हो गया। कपूर उन्हें भी सयानी हिदायत दे रहा था कि टहलने अकेले न जाया करें। एक तो संग साथ में सैर-सूर का मज़ा ही कुछ और होता है। और फिर एक-दूसरे का ख़्याल भी रखते चलते हैं। सावित्री बहन जी नहीं बता रहीं थीं मिस्टर चड्डा का क़िस्सा ? राह चलते अटैक आया, वहीं ढेर हो गए। तीन घंटे बाद जाकर कहीं ख़बर लगी ? बूढ़ी हड्डियों को बुढ़ापा ही टंगडी मारता है।

    कपूर की सलाह ठीक लगकर भी अमल करने लायक़ नहीं लगी। उन्हें मधुमेह है। केवल गोलियों के बूते पर मोर्चा नहीं लिया जा सकता–इस नरभक्षी रोग से। राजो ज़िंदा थी तो उन्हें कभी अपनी फ़िक्र नहीं करनी पड़ी। नित नए नुस्ख़े घोंट-घांटकर पिलाती रहती। करेले का रस, मेथी का पानी, जामुन की गुठली की फंकी...और न जाने क्या-क्या।

    ‘‘येऽऽ अंकल...चाऽऽ च, इधर पीछे देखिए न ! कब से बुला रहा हूं... फ़ेसिंग के पीछे हूं मैं।’’
    ‘‘पीछे आइए...इधर, उधर देखिए न...’’ फ़ेसिंग के पीछे से उचकता बच्चा उनकी बेध्यानी पर झुंझलाया।

    हकबकाए से वे पुनः ठिठककर पीछे मुड़े। अबकी सही ठिकाने पर नज़र टिकी—‘‘ओऽऽ तू पुकार रहा है मुझे ?’’ फ़ेसिंग के उस पार से बच्चे के उचकते चेहरे ने उन्हें एकबारगी हुलास से भर दिया।

    ‘‘क्यों भई, किस वास्ते...?
    उसका स्वर अनमनाया, ‘‘मेरी गेंद बाहर चली गई है।’’
    ‘‘कैसे ?’’
    बच्चे का स्वर उनके फ़िज़ूल से प्रश्न से खीझा—‘‘बॉलिंग कर रहा था।’’

    ‘‘अच्छाऽ...तो बाहर आकर ख़ुद क्यों नहीं ढूंढ़ लेते अपनी गेंद ?’’
    बच्चे का आशय भांप वे मुस्कराए।
    ‘‘गेट में ताला लगा हुआ है।’’
    ‘‘ताला खुलवा लो मम्मी से।’’
    ‘‘मम्मी नर्सिंग होम गई हैं।’’

    ‘‘नौकरानी तो होगी घर में कोई ?’’
    ‘‘बुद्धिराम गांव आया है। घर पे मैं अकेला हूं। मम्मी बाहर से बंद करके गई है।’’ बच्चे के गब्दू भोले मुख पर लाचारी ने पंजा कसा।
    ‘‘हुंअ, अकेले खेल रहे हो ?’’
    ‘‘अकेले...मम्मी किसी बच्चे के साथ खेलने नहीं देतीं।’’
    ‘‘भला वो क्यों ?’’

    ‘‘मुझे भी ग़ुस्सा आता है। बोलती है–बिगड़ जाओगे। यहां के बच्चे जंगली हैं।’’
    ‘‘बड़ी ग़लत सोच है। ख़ैर...। तुम्हें नर्सिंग होम साथ लेकर क्यों नहीं गईं ?’’
    मां की बेवकूफ़ी पर उन्हें गुस्सा आया। घंटे आध घंटे की बात ही तो थी, बच्चे को इस तरह अकेला छोड़ता है कोई ?
    ‘‘मम्मी घंटे भर में नहीं लौटेंगी अंकल, रात नौ बजे के बाद लौटेंगी।’’

    ‘‘इतनी देर से...?’’
    मम्मी तो डॉक्टर हैं। मेरे साथ रहने के लिए नर्सिंग होम से एक नर्स आंटी आएंगी अभी। वही गेट खोलेंगी, घर भी खोलेंगी...’’
    ‘‘पहले तो अंकल, मम्मी मुझे घर में बंद कर जाती थीं।’’
    उनके माथे के बल चिंता और अविश्वास से गहराए—‘‘और तुम्हारे पापा कब आते हैं ?’’
    पटर-पटर बोलने वाला बच्चा अनायास चुप्पी की खोह में उतर गया।

    ‘‘नहीं हैं ?’’ आशंकित हो उन्होंने प्रश्न किया। फिर लगा कि इतने छोटे बच्चे से उन्हें यह सवाल नहीं पूछना चाहिए था।
    ‘‘हैं न।’’ बच्चे ने संशय निवारण किया।
    ‘‘फिर...?’’ उसे कुरेदने से स्वयं को नहीं रोक पाए।
    ‘‘अलग रहते हैं... मम्मी लड़ती हैं उनसे।’’

    ‘‘ओहऽऽ...’’
    ‘‘अंकल मेरी गेंद ढूंढ़ दीजिए न’’
    ‘‘तुम मुझे अंकल क्यों कह रहे हो...मैं तुम्हारे दादाजी की उम्र का हूं। मुझे दादाजी कहो।’’
    बच्चा असमंजस में पड़ गया।
    ‘‘बूढ़ों को दादाजी कहकर पुकारते हैं...’’ उन्होंने समझाया।

    बच्चा लहककर बोला–‘‘हां, नानाजी भी बोलते हैं।’’
    ‘‘दादाजी को नहीं जानते ?’’
    ‘‘न इऽऽ...’’ बच्चे ने मासूमियत से मुंडी हिलाई।
    ‘‘चलो, मुझे दादाजी पुकारा करो। पुकारोगे न ?’’ सहसा उनका गला भर्रा आया, हैरत हुई स्वयं पर।

    ‘‘पुकारूंगा...पर गेंद ढूंढ़कर देनी होगी आपको।’’
    ‘‘ढूंढ़ दूंगा...पहले पुकारो’’
    ‘‘दादाजी, मेरी गेंद ढूंढ़ दीजिए न।’’

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